Saturday, April 8, 2017

जब नानक काबा की तरफ पैर करके सोये +रमेशराज




जब नानक काबा की तरफ पैर करके सोये

+रमेशराज
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अपने-अपने धर्म और अलग-अलग ईश्वरों दैव-शक्तियों को लेकर भेद उन्हें ही जान पड़ता है, जो वास्तविकता से परे, अपने अधूरे ज्ञान के बेूते फूले नहीं समाते हैं। सच्चे संत के लिये मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा अर्थात् समस्त प्रकार के पूजास्थल भेदहीन ही नहीं, इन सब में एक ही परमात्मा के वास की अलौकिक अनुभूति करता है।
सिखों के प्रथम गुरु नानक भी उन पहुंचे हुए संतों में से एक थे, जिन्हें सर्वत्र एक ही ईश्वर की लीला दिखायी देती थी। एक बार गुरुजी मुसलमानों के पवित्र स्थान मक्का गये। जब रात हुई तो वे काबे के निकट काबे की तरफ पैर करके सो गये। एक अन्जान व्यक्ति को काबा की ओर पैर कर सोते हुए देखकर वहां का काजी गुस्से से भर उठा। वह लाल-पीला होते हुए बोला-‘‘ तू कौन काफिर  है जो खुदा के घर की ओर पैर कर सो रहा है और इस तरह पैर पसार कर सोना खुदा का अपमान है।’’
गुरु नानक बड़े ही सहज और विनम्र भाव के साथ बोले-‘‘ भइया मुझे क्षमा करना, मैं थका-हारा था मुझे यह पता ही नहीं चला कि यह खुदा का घर है, अतः अज्ञानतावश खुदा के घर की ओर पैर करके सो गया।’’
काजी उनकी बात सुनकर और आग बबूला हो गया। उसने आव देखा न ताव गुरुजी के पैर पकड़े और काबे के विपरीत दिशा में घसीट दिये। लेकिन जब उसने देखा कि काबे के विपरीत पैर करने के बावजूद काबा उसी ओर दिखायी पड़ रहा है जिसे ओर नानक जी के पैर हैं तो उसने पुनः गुरु जी के पैरों को विपरीत दिशा में पलट दिया। इस बार भी काजी यह देखकर हैरत में रह गया कि अब भी पैर उसी दिशा में है जिधर खुदा का घर है। काजी ने इस क्रिया को कई बार किया और बार-बार देखा कि काबा उसी ओर घूम जाता है जिसे ओर नानक जी के पैर होते हैं तो वह अचम्भे में आते हुए वहां से मक्का के मुजाहिर के पास चला गया और मुजाहिर को विस्मय के साथ यह सारी घटना बता दी। फिर क्या था, जहां नानक सोये थे, वहां अनेक हाजी इकट्ठे हो गये। वहां के बड़े काजी तुकरुद्दीन, पीर जलालुद्दीन व बहाउद्दीन ने गुरुजी से ढेर सारे सवालों की झड़ी लगा दी। उन सवालों के उत्तर गुरुजी बड़ी ही विनम्रता से एक-एक कर देते रहे। जब सब शंकाहीन और निरुत्तर हो गये तो पीर बहाउद्दीन ने अपने समस्त धार्मिक साथियों को सम्बोधिात करते हुए कहा, ‘‘ ऐसा फकीर है जो हम सबसे ऊपर है। इसके लिए तो समस्त जहान ही खुदा का घर है।  ये हम सब पीरों का पीर है जिसे खुदा ने ही हम सबको सच्ची राह दिखाने के लिए भेजा है।’’
पीर बहाउद्दीन के इन बचनों को सुनकर वहां एकत्रित समस्त हाजी पीर नानक के प्रति भक्तिभाव से भर उठे और उन्हें प्रणाम करने के बाद क्षमा-याचना करने लगे। गुरु जी ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा-‘‘ गुनाहों और बुरे कामों से तौबा कर, समस्त जगत को समान भाव से देखने वाला और जगत का कल्याण करने वाला ही ईश्वर का सच्चा भक्त होता है। ईश्वर और अल्लाह एक ही हैं।’’
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भाईचारे का प्रतीक पर्व: लोहड़ी +रमेशराज




भाईचारे का प्रतीक पर्व: लोहड़ी

+रमेशराज
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लोहड़ी’, ‘तिलतथा रोड़ीशब्दों के मेल से बना है, जो शुरू में तिलोड़ीके रूप में प्रचलन में आया और आगे चलकर यह लोहड़ीके नाम से रूढ़ हो गया। लोहड़ीपंजाबियों का प्रमुख त्योहार है जो पौष माह की विदाई और माघ मास के स्वागत में खुशी और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। पंजाब या उससे अलग अनेक क्षेत्रों में इसे लोही’, ‘लोई’, ‘लोढ़ीआदि नामों से भी पुकारा जाता है। लोहड़ी आपसी भाईचारे प्रेम-सद्भाव का प्रतीक है। पौष माह की अन्तिम रात को ढ़ोल की थाप और भंगड़ा नत्य के साथ परिवारों एवं आस-पड़ोस के लोगों सहित सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले इस त्योहार के सम्बन्ध में एक प्रमुख कथा यह है कि मुगलों के समय में दुल्हा भट्टी नामक एक बहादुर योद्धा था। इस योद्धा ने मुगलों के अत्याचारों का खुलकर विरोध किया। उस समय एक ब्राह्मण जो अत्यंत दरिद्र था। उसकी दो पुत्रियाँ अत्यंत सुन्दर और गुणवान थीं। मुगल बादशाह ब्राह्मण की इन दोनों पुत्रियों सुन्दरीऔर मुन्दरीसे जबरन शादी करना चाहता था। उन दोनों की सगाई कहीं और हो गयी थी। मुगल बादषाह की दाब-धौंस से तंग आकर एक दिन ब्राह्मण ने अपने मन की व्यथा दुल्हा भट्टी को सुनायी। दुल्हा भट्टी ब्राह्मण की दोनों पुत्रियों को जंगल में ले गया और वहीं उसने लड़कियों के मंगेतरों को बुला लिया और आग जलाकर अग्नि के सम्मुख उनके सात फेरे डलवा दिये। यही नहीं उसने स्वयं उनके कन्यादान की रस्म भी निभायी। उस समय दोनों दूल्हों ने शगुन के रूप में दुल्हा भट्टी को शक्कर भेंट की। लोहड़ी के उत्सव के समय गाये जाने वाला यह गीत घटना की स्पष्ट गवाही देता है- ‘‘सुन्दरिये भट्टी वाला हो/दूल्हे धी ब्याही हो/सेर शक्कर पायी हो।’’
    अत्याचार के विरूद्ध जिस प्रकार वीर योद्धा दूल्हा भट्टी ने अपनी आवाज बुलंद की थी और मानवता की रक्षार्थ समय-समय पर अपने प्राण संकट में डाले थे, पंजाबी लोग आज भी उसे लोहड़ी के समय याद करते हैं। दसअसल लोहड़ी अत्याचार पर करुणा की विजय का त्योहार है। गेंहूँ और सरसों की फसल से भी इसका सम्बन्ध है। इन्ही दिनों खेतों की फसलें अपने पूरे यौवन पर होती हैं। लोहड़ी के दिन गाँव या शहर के स्त्री-पुरुषों के टोल के टोल लोहड़ीके लकड़ी के गट्ठर और गोबर के उपले के ढेर का कलावे से पूजन कर उसमें अग्नि प्रज्वलित कर फेरे लेते हैं और आग में तिल डालते हैं। तिल डालने के पीछे मान्यता यह है कि जितने तिल आग की भेंट किये जायेंगे, उतने ही पाप नष्ट होते जायेंगे। आग में तिल डालते हुए लोग कहते हैं - ‘‘ईसर आए, दलिदर जाए।’’
    आजकल लोहड़ी का स्वरूप काफी कुछ बदल गया है। इसका सम्बन्ध बेटे के जन्म अथवा बेटी की शादी से भी जुड़ गया है। लोहड़ी के उत्सव के समय बेटे वाले आमंत्रित लोगों को रेबडियाँ, चिड़वे, गजक, फल, मक्का के फूले, मूँगफली आदि प्रसाद स्वरूप भेंट करते हैं। बेटी वाले, बेटी की ससुराल में कपड़े, मिष्ठान और गजक-रेबड़ी आदि भेजते हैं। कई जगह लोहड़ी की रात गन्ने के रस की खीर बनाकर भी प्रसाद के रूप में देते हैं। कुछ स्थानों पर स्टील या पीतल के बर्तनों को गजक आदि से भरकर दिया जाता है।
    युग के बदले रूप के अनुसार कुछ परिवारों में लोहड़ी का उत्सव लड़की के जन्म पर भी मनाया जाने लगा है। देखा जाये तो लोहड़ी गरीब, असहाय की सहायता और मन को पवित्र रखने का एक पवित्र प्रतीक पर्व है।
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कश्मीरी पण्डितों की रक्षा में कुर्बान हुए गुरु तेगबहादुर +रमेशराज




कश्मीरी पण्डितों की रक्षा में कुर्बान हुए गुरु तेगबहादुर

+रमेशराज
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सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर सरल-सौम्य और संत स्वभाव के थे। वे सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सदैव तत्पर रहते थे। गुरुजी ने राजा भीमसिंह के सहयोग से आनंदपुर साहब की नींव रखी। वे यहाँ के शान्त और आनंद प्रदान करने वाले वातावरण में लम्बे समय तक ईश-आराधना में लीन रहे। यहाँ प्रत्येक दिन लंगर लगता, शबद-कीर्तन होता और सतनाम के जाप से वातावरण भक्तिमय बनता।
गुरुजी ने सामाजिक-सुधार के कार्यक्रमों को गति प्रदान करते हुए भिडीवाल के सुल्तान सरवर के शिष्य देसू सरदार को सिख धर्म की शिक्षा प्रदान करते हुए बुरे कर्मों के स्थान पर सत्संग की ओर उन्मुख किया। गुरुजी जब धमधान गाँव पधारे तो उन्होंने ग्रामवासियों को पशुओं के अति दुग्धदोहन पर रोक लगाने का उपदेश दिया। गुरुजी ने कहा कि अति दुग्धदोहन से प्राप्त दूध लहू के समान होता है। गुरुजी जब वारने गाँव पहुँचे तो उस गाँव के मुखिया के साथ-साथ अन्य ग्रामवासियों को तम्बाकूसेवन के दुष्परिणामों को समझाकर, उनसे तम्बाकू सेवन न करने की शपथ दिलायी। गुरुजी इतने संत स्वभाव के थे कि जब वे प्रसिद्ध संत मलूकदास से मिले तो मलूकदास ने गुरुजी को बताया कि वह आज तक पत्थरों को भोजन कराते रहे हैं, आज साक्षात गुरु को करा रहा हूँ।
गुरुजी ने अपनी माता जानकी, गुजरी जी, भाई कृपालचंद व अन्य श्रद्धालु संतों को लेकर जब आनंदपुर से दो कोस दूर पहली यात्रा का जहाँ डेरा डाला, उससे आगे मूलेबाल गाँव था, उन्हें पता चला कि इस गाँव के कुँओं का पानी खारा है, गुरुजी ने उस गाँव में जाकर सतनाम का जाप किया और आदि गुरु नानक का स्मरण करते हुए ईश्वर से इस गाँव के कुँओं के पानी को मीठा करने की जब प्रार्थना की तो इस प्रार्थनास्वरूप समस्त कुँओं का पानी मीठा हो गया। इस चमत्कार को देख समस्त ग्रामवासी उनके प्रति और श्रद्धा से भर उठे। इसके उपरांत ये कुँए गुरु के कुँएके नाम से प्रसिद्ध हुए।
गुरु तेगबहादुर के समय में समस्त भारत पर मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब कट्टर ही नहीं क्रूर शासक था। वह अपनी धार्मिक भावनाओं को विस्तार देने के लिये हिन्दुओं को मुसलमान बनाने और इस्लाम कुबूल करवाने के लिये हर प्रकार के शासकीय हथकंडे अपनाने में जुटा था। उसकी क्रूर नीतियों के कारण हिन्दू संत समाज से लेकर समस्त हिन्दू जाति आतंकित थी। औरंगजेब के आदेश पर कश्मीर का जनरल अफगान खाँ भी हर रोज कश्मीरियों, वहाँ के हिन्दुओं, खासतौर पर पण्डितों को धमकाने में जुटा था और कहता था कि या तो वह इस्लाम स्वीकारें अन्यथा उन सबका कत्ल कर दिया जायेगा। दुःखी और भयभीत कश्मीरी पण्डित अपनी इन असहाय परिस्थिति में गुरु तेगबहादुर से मिले। गुरुजी ने उने लोगों को उनकी रक्षा का आश्वासन दिया। यह खबर जब बादशाह औरंगजेब के कानों तक पहुँची तो वह कुपित हो उठा। उसने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलवाया और इस्लाम स्वीकारने को कहा। गुरुजी बादशाह के सम्मुख तनिक भी भयभीत न हुए। उन्होंने बादशाह से स्पष्ट शब्दों में कहा-एक सच्चा सिख अपनी शीश दे सकता है, धर्म नहीं।गुरुजी  की यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरुजी और उनके शिष्यों को जेल में डलवा दिया। जेल में उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त किया गया। उन्हें भयभीत करने की गरज से उन्हीं के सम्मुख उनके शिष्य मतिदास को आरे से चिरवा दिया। गुरुजी को फिर भी अपने धर्म पर अडिग देख 11 नवम्बर 1675 को चाँदनी चौक दिल्ली में उनका सरेआम कत्ल करा दिया गया। जहाँ गुरुजी शहीद हुए, उस स्थान पर स्थित शीश गंज गुरुद्वारा आज भी इस बात की स्पष्ट गवाही देता है कि गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की खतिर अपना बलिदान देकर हिन्दू-सिख सामाजिक सौहार्द्र की मिसाल पेश की।
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गुरु तेगबहादुर की शहादत का साक्षी है शीशगंज गुरुद्वारा +रमेशराज




गुरु तेगबहादुर की शहादत का साक्षी है शीशगंज गुरुद्वारा

+रमेशराज
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    मुगल बादशाह औरंगजेब महत्वाकांक्षी, क्रूर और अत्याचारी बादशाह था। दिल्ली के तख्त पर आसीन होने के लिए उसने अपने पिता शाहजहाँ को तो जेल में डाला ही, अपने तीन सगे भाई भी कत्ल करवा दिये। औरंगजेब किसी धर्म नहीं बल्कि सत्ता के कुकर्म का जीता-जागता उदाहरण था। निरंकुश शासन करने की महत्वाकांक्षा के चलते उसने हिन्दू-शासकों को लालच देकर या जबरन उनके राज्य अधिकार छीन लिए। हिन्दुओं पर नया टैक्स जजियाथोप दिया। यहाँ तक कि मेलों, तीर्थ-स्थानों एवं धार्मिक हिन्दू रीति-रिवाजों को शाही फरमान जारी कर बन्द करा दिया। जब बडे-बडे संतों-भक्तों-फकीरों ने उसकी इस कट्टरता को स्वीकार नहीं किया तो उन्हें भी मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया।
    इतिहास बताता है कि इस सनकी बादशाह के हुक्म का पालन करते हुए जब जनरल अफगान खाँ ने कश्मीरी पंडितों पर इस्लाम कुबूल करने के लिए दबाब डाला तो कश्मीरी पंडित अत्यंत भयभीत होकर गुरु तेगबहादुर की शरण में गये और रक्षा की गुहार लगाई। गुरुजी ने कहा कि हम सब मिलकर बादशाह के अभियान का विरोध करेंगे, भले ही हमें अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें।
    औरंगजेब को गुरुजी के इरादों की जब भनक लगी तो उसने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलवाया और उनसे इस्लाम कबूल करने को कहा। गुरुजी ने जब यह सब करने से साफ इनकार कर दिया तो क्रूर बादशाह ने क्रोधित होकर उन्हें कारा में डलवा दिया। उनके शिष्यों और हिन्दुओं का आंतकित करने की गरज से मतिराम नामक सिख को आरे से चिरवाया और दिआले नामक सिख को उबलती देग में फैंक दिया गया। इस नीच कर्म के बाद औरंगजेब ने गुरुजी से कहा -यदि आप मुसलमान नहीं बनोगे तो आपका भी यही हश्र होगा।शेष रहे तीनों सिखों को गुरुजी ने आदेश दिया कि मेरा अंतिम समय आ गया है, तुम पंजाब लौट जाओ। उनके शिष्य गुरुदत्ता अदे और चीमा ने कहा -गुरुजी हमारे तो बेडियाँ पड़ी हैं, हम कैसे जा सकते हैं।गुरुजी बोले- गुरुवाणी का पाठ करो, बेडियाँ अपने आप टूट जायेंगी। दरवाजे अपने आप खुल जायेंगे। तीनों शिष्यों ने जब गुरुवाणी का जाप किया तो गुरु आशीर्वाद से दरवाजे खुल गये और बेडियाँ टूटकर जमीन पर गिर पडीं। तीनों स्वतंत्र होकर वहाँ से भाग गये। अकेले रह गये गुरुजी जाप करने लगे -
राम नाम उरि मैं गहिऔ जाके सम नहिं कोइ
जिह सिमरत संकट मिटै दरस तुहारौ होई।
    11 नवम्बर 1675 का मनहूस दिन। क्रूर बादशाह औरंगजेब जेल में आया। उसने गुरुजी को जेल से बाहर निकाला और दिल्ली के चाँदनी चौक स्थान पर ले आया। भारी हजूम के बीच इसी चौक पर उनका सरेआम कत्ल कर दिया गया। इस दर्दनाक घटना के गवाह वहाँ जितने भी लोग खड़े थे, सबकी आँखों से अश्रु की अविरल धारा फूट पड़ी। प्रकृति ने भी तेज तूफान के रूप में प्रकट होकर अपना रोश जताया। जब अंधेरा हो गया तो जीवन सिंह नामक सिख ने गुरुजी का कटा हुआ शीश कपड़े में लपेटा और उसे आनंदपुर ले आया और चन्दन की लकड़ी की चिता के हवाले सम्मानपूर्वक कर दिया।
    दिल्ली में जहाँ गुरुजी का कत्ल हुआ आज वहाँ एक गुरुद्वारा ‘शीशगंज’ के नाम से है। यह गुरुद्वारा गुरुजी की शहादत का साक्षी है। जिस पर सिख अत्यंत श्रद्धा के साथ माथा टेकते हैं और अरदास करते हैं।
    गुरुजी के धड़ को जिस स्थान पर अग्नि को समर्पित किया गया, उस स्थान पर दिल्ली में गुरुद्वारा ‘रकाबगंज’ के नाम से है। यह गुरुद्वारा भी उतनी ही श्रद्धा और पूजा का स्थल है जितना कि शीशगंज गुरुद्वारा।
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गुरु रामदास की कृपा से बाँझ बनी तेजस्वी पुत्र की माँ +रमेशराज




गुरु रामदास की कृपा से बाँझ बनी तेजस्वी पुत्र की  माँ

+रमेशराज
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गुरु रामदास जी अपने विचारो से दृढ़, अद्भुत संगठनकर्ता और पारखी महापुरुष थे। वह छूआछूत, भेदभाव ऊंच-नीच, जाति-पांत में विश्वास नहीं रखते थे। गुरु रामदास ने ही अमृतसर की स्थापना की थी जो गुरुजी के समय में रामदास नगर कहलाता था। गुरुजी परमात्मा-स्वरूप थे। उन्होंने अनेक सरोवरों का निर्माण कराया। बावली बनवायी। गुरु जी के बताये रास्ते पर चलने वाले गुरु रामदास पवित्र आचरण की प्रतिभूर्ति थे।
एक बार फिरोजपुर के मालवे नामक गांव का एक जाट आदम जो पीर-फकीरों को बहुत मानता था, अपनी पुत्र-प्राप्ति की इच्छा को लेकर गुरु रामदास के चरणों में गिर गया। गुरुजी ने अपनी अंतर्दृष्टि से उस जाट की आन्तरिक पीड़ा को तुरंत पहचान लिया। उसे अपने चरणों से उठाकर गले लगाते हुए उन्होंने कहा-‘‘ गुरुनानकजी गद्दी की सेवा करते रहो, तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण होगी।’’
गुरु के चक की सेवा में वह जाट और उसकी पत्नी दिन-रात जुट गये। वे दोनों गुरु का ध्यान करते हुए रोज जंगल से सूखी लकड़ी इकट्ठी करते और लंगर में दे आते।
एक बार सर्दियों में भयंकर बरसात हुई। सूखी लड़की भी गीली हो गयीं। सिख-संगत की इस बढ़ती परेशानी को देख उस जाट ने अपने घर जमा समस्त सूखी लकडि़यां संगत में बांट दीं। सर्दी से ठिठुरते लोग सूखी लकड़ी पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। संगत ने जाट के इस कार्य की प्रशंसा जब गुरुजी से की तो गुरुजी उस जाट के प्रति अत्यंत प्रसन्न हुए। गुरुजी ने उससे कहा-‘‘तूने संगत को बहुत खुशी दी है अतः वाहे गुरु तेरी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करेंगे। कल तू अपनी पत्नी  के साथ यहां आना और अपना निवेदन गुरुनानक के चरणों में करना।
दूसरे दिन जाट अपनी पत्नी के साथ गुरु दरबार में आया। गुरुजी को नमन करने के बाद उसने और उसकी पत्नी ने गुरुजी से कहा-‘‘गुरुजी आप तो अन्तर्यामी है। आपको हम क्या बतायें कि हमें क्या कष्ट है।’’
यह सुनकर गुरु रामदास मन ही मन मुस्काये और बोले-‘‘तुम दोनों ने गुरु गद्दी की जो निष्काम सेवा की है, उससे हम अत्यंत प्रसन्न हैं। तुम्हें गुरु-कृपा से केवल पुत्र ही नहीं, ऐसा प्रतापी पुत्र प्राप्त होगा जो आगे चलकर पूरे संसार में अपना नाम रोशन करेगा। अब अपने घर जाओ और सतनाम को स्मरण करो।
इस घटना के उपरांत जाट के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। जाट आदम ने गुरुजी से पूछकर उसका नाम भगतू रखा। भगतू ने भक्ति ही नहीं, पराक्रम शौर्य के साथ अपना नाम जग विख्यात बनाया। कैथल के राजा लाल सिंह और ऊधम सिंह भगतू की संतान के रूप में आगे चलकर अत्यंत प्रकाशवान नक्षत्र बने, जिन्होंने महाकवि संतोष सिंह के मार्ग दर्शन में नानक-प्रकाशनामक ग्रन्थ लिखवाया।
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उस गुरु के प्रति ही श्रद्धानत होना चाहिए जो अंधकार से लड़ना सिखाता हो +रमेशराज




उस गुरु के प्रति ही श्रद्धानत होना चाहिए जो अंधकार से लड़ना सिखाता हो 

+रमेशराज
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पर्व गुरु पूर्णिमाऐसे सच्चे गुरुओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने वाला दिन है, जिन्होंने धर्म के रथ पर सवार होकर श्री कृष्ण की तरह अर्जुन रूपी जनता से सामाजिक बुराइयों, विसंगितियों, भेदभाव, छूआछूत और अत्याचार से लड़ने के लिए युग-युग से शंखनाद कराया है और अब भी समय-समय पर अपने पावन वचनों से जन-जन में अमिट ऊर्जा का संचार करते रहते हैं।
कबीरदास का कहना है कि गुरु के समान कोई भी अन्य प्राणी इस संसार में हितैषी, मंगल करने वाला और सगा नहीं हो सकता। गुरु का गौरव अनंत और अवर्णनीय है। वह मनुष्य के अगणित चक्षुओं को खोल देता है और सही अर्थों में परमात्मा के दर्शन कराता है। सदगुरु के हाथ में शिक्षा का अग्निवाण होता है जिसको वह समय-समय पर छोड़ कर पाप के प्रत्यूह को जलाता है। गुरु ही मनुष्य के कठोर हृदय को सहज और सरल बनाता है।
लगभग एक हजार व्यक्तियों को क्रूरता से मारकर और उनकी अंगुलियों को काटकर उन्हें गले में माला की तरह पहनने वाले कुख्यात डाकू अंगुलि माल को गौतम बुद्ध ने जिस प्रकार अधर्म के मार्ग पर चलने से रोककर सच्चे धर्म की ओर अन्मुख किया, यह कार्य सच्चे गुरु के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता था।
    गुरु विश्वामित्र के सानिध्य और शिक्षा का ही परिणाम था कि श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में समाज के सम्मुख एक आदर्शवादी चरित्र बनकर उभरे और अमरता को प्राप्त हुए।
स्वामी दयानंद और उनके शिष्य श्रद्धानंद तथा समर्थ गुरु रामदास, स्वामी विवेकनंद, संत रविदास, महात्मा फुले आदि ने दलितों, दरिद्रों, असहायों, पीडि़तों में जिस प्रकार नवचेतना और अभूतपूर्व शक्ति का संचार किया, यह महानकार्य गुरु के अलावा कोई नहीं कर सकता।
अंग्रेजों की दासता के काल में स्वतंत्रता संग्राम के अनेक महानायकों का तैयार करने में गुरुओं का योगदान कम करने नहीं आका जा सकता।
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान परमात्मा से भी बड़ा और ऊंचा इसलिये माना गया है क्योंकि गुरु के ज्ञान के ही द्वारा मनुष्य प्रथम सांसारिक और बाद में कैवल्य का बोध ही प्राप्त नहीं करता बल्कि समस्त प्रकार की बुराइयों से जूझते हुए जीवन को सार्थक बनाता है। गुरु वह ज्ञान प्रदान कराता है जिससे मनुष्य कठोर स्वभाव को त्याग, वासनाओं, विचारों, प्रवृत्तियों के उद्वेलन से मुक्त होकर शांत, मोहविहीन, निर्लिप्त जीवन जीने लगता है। गुरु के द्वारा मनुष्य के भीतर एक ऐसा प्रकाश जगता है, जिसमें पूरा संसार उसकी चेतना के रागात्मक विस्तार में स्थान पाने लगता है।
गुरु वसुधैव कुटुम्बकुमकी भावना का दूसरा नाम है। गुरु भगवान का सेवक होता है इसलिये गुरु द्वारा प्रवृत्त शास्त्र भी गुरु हैं। सिख धर्म में भी दस गुरु साहेबान हुए हैं। सिखों के आदि अवतार देवगुरु नानक ने मन को कागज बतलाया है और कर्म को स्याही। उनका कहना है कि पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख हैं। मुनष्य को कागज पर लिखे पुण्य के लेख को ही विस्तार देना है और पाप के लेख को मिटाना है।
प्रथम गुरु नानकेव से लेकर सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह तक का काल सभ्यता के उत्पीड़न का काल था। हिन्दू-मुसलमानों के मतभेद सभ्यता में छेद कर रहे थे। नानक ने उपदेश दिया-‘‘ दया को मस्जिद जानो, उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय को कुरान जानो, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा जानो, तब तुम मुसलमान कहलाने के हकदार होंगे। इसी प्रकार हिन्दुओं से नानक ने कहा-मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थ स्थानों पर स्नान किया है, तपस्वियों  से मिला हूं और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि जो मनुष्य बुरे काम नहीं करता, अपने मन में भेदभाव नहीं लाता वही सच्चा भक्त व सच्चा पुरुष है।
गुरुनानक की तरह गुरु अंगद देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव ने भी गुरु द्वारा प्रदत्त मार्ग पर चलते हुए लोक कल्याण किया।
गुरु हर गोविन्द सिंह ने मात्र जनता को सद् उपदेश ही नहीं दिये बल्कि अत्चाचारी मुगल बादशाहों से युद्ध करके जनता को मुक्त कराते रहे। बादशाह जहांगीर की कैद से 52 राजाओं को मुक्त कराया। गुरु हर गोविन्द सिंह का तो स्पष्ट कहना था कि अत्याचार के विरोध में कंठी-माला की बजाय जनता तलवारें धारण करें।
सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर ने तो कश्मीरी पंडितों तथा हिन्दुओं की रक्षा हेतु दिल्ली में अपने प्राणों का बलिदान दिया। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जिन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की थी, वीरतापूर्वक मुगलों से लोहा लेते रहे। गुरुजी के इस धर्म युद्ध में उनके चार पुत्र भी वीर गति को प्राप्त हुए।
भारतवर्ष में गुरु और शिष्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। गुरु और शिष्य के मध्य प्रगाढ़ आस्था को व्यक्त करने वाले गुरु पूर्णिमा पर्व की महत्ता इसी अर्थ में है कि इस दिन हम उस गुरु के प्रति श्रद्धानत हों  जो अंधकार से लड़ना सिखाता है और ईश्वर से मिलन के रास्ते सुझाता है।
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बिन काया के हो गये ‘नानक’ आखिरकार +रमेशराज




बिन काया के हो गये नानकआखिरकार

+रमेशराज
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साक्षात ईश्वर के समान, असीम अलौकिक शक्तियों के पुंज, जातिपांत-भेदभाव के विनाशक, मानवता के पावन संदेश को समस्त जगत में पुष्प-सुगंध की तरह फैलाने वाले गुरु नानक सिख-धर्म के संस्थापक ही नहीं, अद्भुत असरकारी और सत्योन्मुखी कविता की अमृतधारा के ऐसे कवि थे, जिन्हें मंगलकारी भावना और आपसी सद्भावना के लिये युग-युग तक याद किया जायेगा।
सिखों के आदिगुरु नानक देव के पावन संदेशों की दिव्य-झलक आदिगुरु ग्रन्थ साहिबएवं उन्हीं के द्वारा रचित जपुजीमें अनुनादित है। इन सच्चे ग्रन्थों में नानक ने उपदेश दिया है कि जल पिता के समान है। हमारी धरती माता महान है। वायु गुरु है। रात और दिन धाया है, जिनकी गोद में यह संसार खेलते हुए आनंदमग्न हो रहा है।
गुरु नानक ने कहा कि मानव-धर्म का पालन करो। भेदभाव को मिटाओ। जातिपाँत-ऊँचनीच के भेद को खत्म करो। यह संसार दया-करुणा से ही आलोकित होगा। इसलिए हर जीव की रक्षा करते हुए इसे प्रकाशवान बनाओ और हर प्रकार के अंधकार से लड़ना सीखो।
आपसी तकरार और बैर-भाव में डूबे लोगों को नानक के समझाया- ‘‘सभी का हृदय घृणा और अहंकार से नहीं, प्यार से जीतो।’’ उन्होंने मुसलमानों को संदेश दिया कि - ‘‘काकर-पाथर की नहीं, सद्ज्ञान की मस्जिद बनाओ और उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ। दया को ही मस्जिद मानो, न्याय को कुरान जानो। नम्रता की सुन्नत करो। सौजन्य का रोजा रखो, तभी सच्चे मुसलमान कहलाओगे। बिना ऐसी इबादत के खाली हाथ आए हो, खाली हाथ जाओगे।’’
गुरुनानक ने नये ज्ञान के मार्ग खोलते हुए कहा- ‘‘ईश्वर, अल्ला, आदि सब एक ही परमात्मा के रूप हैं। विचार करोगे तो अलग से कोई भेद नहीं। प्रभु या परमात्मा प्रकाश का एक अक्षय पुंज है। उस प्रकाशपुंज के सदृश संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं। जिसका नाम सत्य है वही सच्चे अर्थों में इस सृष्टि को चलाता है। इसलिए हमें उसी अलौकिक निराकार सतनाम का जाप करना चाहिए। यह सतनाम भयरहित है। अजर है, अमर है। हमें इसी परमात्मा के रूप को समझना, जानना और मानना चाहिए। जब तक हम सतनाम का स्मरण नहीं करेंगे, तब तक किसी भी प्रकार के उत्थान की बात करना बेमानी है। यदि हमें अपने मन के अंधकार को दूर करना है तो जाति-पाँत के बन्धन तोड़ने ही होंगे। क्रोध-अहंकार, मद-मोह-स्वार्थ को त्यागना ही होगा। तभी हम ईश्वर के निकट जा सकते हैं या उसे पा सकते हैं।’’
गुरु नानक के समय में हिन्दू-मुसलमानों का परस्पर बैर चरम पर था। छोटी-छोटी बातों पर झगड़ पड़ना आम बात थी। नानक के शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। नानक नहीं चाहते थे कि उनके इस जगत में न रहने के उपरांत लोग आपस में लड़े। असौदवदी-10, सम्वत-1596 को गुरुजी ने सिखसंगत को इकट्ठा कर जब चादर ओढ़ ली और समस्त संगत को सत के नाम का जाप करने को कहा तो समस्त संगत घंटों सतनाम के जाप में इतने तल्लीन रही कि उसे यह पता ही नहीं चला कि नानक तो इस संसार को छोड़ कर परमतत्व में विलीन हो चुके हैं। जब संगत को होश आया तो गुरुजी को लेकर विवाद शुरु हो गया। मुसलमान शिष्य गुरुजी को दफनाने की बात पर अड़ने लगे तो हिन्दू शिष्य उनके दाह संस्कार की जिद करने लगे। इसी बीच जब दोनों ने चादर उठायी तो देखा कि उसमें से नानकजी की काया ही गायब थी, उसके स्थान पर फूलों का ढेर था, जिसे देख शिष्यों को अपनी-अपनी गलती का आभास हुआ। शिष्यों ने आधे-आधे फूल बांटकर अपने-अपने संस्कार के अनुरुप नानक जी को श्रद्धांजलि अर्पित की और सदैव एक रहने की सौगंधे खायीं।
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